quoteoftheday
~ दिल्ली…

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~ शायद, यक़ीनन…
एक ज़मीन का टुकड़ा कुछ उखड़ा, था, शायद…
दो गज़ लम्बाई, दो हाथ भर चौड़ाई, यक़ीनन…
बदमस्त हो वहां ज़िन्दगी सो रही थी, शायद…
मौत चेहरों पे सिरहाने उसके रो रही थी, यक़ीनन…
दूर से लगा, कुछ ऐसा वो मंज़र था, शायद…
मिटटी में जा मिला मिटटी से वो बना था, यक़ीनन…
भीड़ थी और कुछ चेहरों पे गीली लकीर थी, शायद,
बाकी रौनक आ–जा रही, रस्म निभा रही थी, यक़ीनन…
ताबूत में अब बस होने को वो बंद था, शायद…
आज़ाद छंद था अब वो आज़ाद छंद था, यक़ीनन…
~ गोश्त की दुकान…
साहब, छोटा मुँह और बड़ी बात…
दो पैर, दो हाथ…छरहरा बदन, तीखे नयन…बिगड़े हालात…खिलता चमन…उजाड़ोगे?
गोश्त नया है आया…एकदम गर्म…हज़ार मील का सफर है किया तय…
दो दिन, दो रात लगी यहाँ तक लाने में..सोलह की है…खाली पेट …भरोगे?
बोटी बोटी रसदार है…आप हाँ करते हो नहीं तो मेरे पास दूसरा खरीददार हैं…
साहब, आप तो खिलाड़ी है…वो पहली बार बाजार में आयी है…हम दोनों की ये पहली कमाई है…
और हाँ, अगर हाथ न आये तो प्यार से समझाना…मरोड़ियेगा मत…मरोड़ना पड़े तो तोड़िएगा मत…
थोड़ी ख़ुद पीजिएगा…और बहला फुसला के गर्दन से पकड़ लेना…अकड़ने लगे, तो बाहों में जकड़ लेना…
चीख़ना चिल्लाना बहुत होगा, दिल मज़बूत रखना…तड़पनतो होगी…मुँह अच्छे से ढकना…
ज़रूरी बात, दाम में कोई कमी ना होगी…सस्ता चाहिए तो बाड़े में और बहुत हैं जंजाल…चुन लीजिए हमारी दुकान में एक से बड़कर एक हैं ज़िंदा कंकाल…