
Google Images “no copyright infringement is intended”
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अमीर होना या ग़रीब होना,
होना बदनसीब या ख़ुशनसीब होना…
उनसे दूर होना या उनके करीब होना,
सब जैसा होना या अजीबो गरीब होना…
होना आबाद या निस्तो–नाबाद होना,
किसी के बस में या बिलकुल आज़ाद होना…
टहनी से लटका या गिरा हुआ फल होना,
ताज़ा आज या गुज़रा हुआ कल होना…
सड़क का कंकर या मील का पत्थर होना,
भला चंगा होना या बद से बदत्तर होना…
भोला–भाला होना या तेज़–तर्रार होना,
काम का होना या बिलकुल बेकार होना…
गोरा–चिट्टा होना या अँधेरी रात सा,
या इस जात का उस जात का…
बाकी सब पहनावे हैं,
बहकाने के छलावे हैं…
~ चुनाव चिन्ह…
सोचा उन्नीस में अगला चुनाव है और कोई बीस इक्कीस न हो जाये,
हम उठे, चुनाव ऑफिस गए और अपना परचा भर आये…
हमारा परचा एक्सेप्ट तो हो गया पर कोने पे सितारा * बना दिया,
कहा, विचार होगा इस पर – कल आये और अपना चुनाव चिन्ह विस्तार से समझाए…
हमने चुनाव चिन्ह में तीन ऑप्शन दिए थे – “बोतल, गिलास और बार”
हमें क्या, हम क्लियर थे समझाने को, एकदम तैयार…
अब उठायी दोनों टाँगे, ताँगा झोला और फिर पहुँच गए चुनाव दफ़्तर…
नम्बर पहला था और एक सवाल आया “ये भी कोई चुनाव चिन्ह है; ये तो समाज की बुराईयाँ है, कुछ और लायें”
अब ये ज़रा हमें दुःख गया, पैर फैलाये और विस्तार से समझाया –
इन तीनो चिन्ह में से कोई एक भी बता दें जो धर्म, जात, या किसी भी वजह से तोड़ती हो,
चलिए यह बता दीजिये, कौन सा कुछ खाने से रोकता है, या कौन सा अपना विचार हम पर थोपता है,
जनाब…शराब कौन बना रहा है, कौन पिला रहा है और कौन पी रहा है इसमें कोई भेद भाव नहीं है,
शराब तो एकता का प्रतीक है और ये बात पूरी दुनिया ठीक है,
रही बात बाकी के चिन्हो की – समाज में बुराईयां कौन फैला रहा हैं, वो चिन्ह शांति के होंगे मगर आग वही लगा रहे हैं और आप ख्वामखाह हमें ही बहका रहे हैं…
कोई हाथ फैला रहा हैं और खानदान चला रहा हैं,
कहीं फूल है तो कीचड भी बेहिसाब,
साईकिल वोट खा रही हैं और गाडी चला रही हैं,
हथोड़ा कहीं कर रहा है वार और तरक़्क़ी में हैं बेरोज़गार,
कहीं तीर कमान, कहीं उगता सूरज और कहीं हल का निशान – सब मिल के कर रहे हमें परेशान,
हमारे इरादे मज़बूत है इनपे झाड़ू ना चलायें,
जनाब, हाथी चल सकता है – तो बोतल, गिलास या बार क्यों नहीं…
हमारा चिन्ह हमें मिलना चाहिए और हमने तो ओपिनियन पोल भी करवाया हैं –
अस्सी प्रतिशत हमारे साथ हैं,
जो धर्म – जात – रंग – भेद से ऊपर उठना चाहते हैं…
बचे बीस प्रतिशत,
कुछ लड़ने लड़ाने में व्यस्त और कुछ विदेशों में हैं विलुप्त…
जनाब, हमारा तो सिर्फ़ चिन्ह नशे का है प्रतीक…
ये सब तो सत्ता के नशे में हैं धुत्त…कहिए अब ठीक?…
~ ख़त…
हवाओं में आज इक मीठी सी महक है,
देखुँ ख़त आया होगा…
वो दूर कुछ नज़र आ भी रहा है,
धूल भी उड़ रही है,
धड़कने अब मेरी बड़ने लगी,
मैं भागी भागी इस सोच में थी,
बताया नहीं इस बार की आने को हैं,
फिर सोचा ये तो ऐसे ही हैं, पगले कहीं के…
बता देते….
तो कुछ अच्छा सा बना लेती,
और ख़ुद को थोड़ा सज़ा लेती,
बता देते….
तो रात भर ना सोती मैं,
और मीठे सपनो में खोती मैं,
बता देते….
तो टिका तिलक मँगा लेती,
और फूलों से सेज सज़ा लेती,
बता देते….
तो सारे ख़त में पड़ लेती,
और सपनो में तुमसे लड़ लेती,
ये सोच सोच अब धड़कने मेरी तेज़ हुई,
वो धूल उड़ाती, गाड़ी, आ रुकी…
दो जवान, गर्दन झुकी और सीना तान,
आगे बड़े, आ कर पास,
दे गए, तिरेंगे में लिपटा…एक ख़त…
अक्सर बेहतरीन क़िस्से चालीस पार करते ही ख़त्म हो जाते हैं, तो अगर आप चालीस पार कर पचास को छूने वाले हैं तो अपने आपको ख़ुशनसीब समझें, खुदा का करम है आपपर अभी आपने बहुत कुछ देखना है…
लेकिन हाँ ख़ुशनसीब ही समझें, आप बेहतरीन नहीं हैं और ना ही कभी होंगें, बेहतरीन होना और ख़ुशनसीब होना दोनो मुख़्तलिफ़ बातें हैं, बेहतरीन होना है तो ये तय कर लें जो भी आपका हुनर है उसे चालीस तक तराश कर उस मुक़ाम तक ले जाएँ, की खुदा का पैगाम आये…बंदे तेरा काम हो गया है, अब “तू आजा”…
वापसी के माने, दूर, ज़मीन से दूर, पानीयों से दूर, पहाड़ों से दूर, काले सफ़ेद बादलों को चीरता, कभी मिट्टी तो कभी आग के ज़रिए सबकी आँखों में धूल या धुआँ झोंकता हुआ, “तू आजा”…
तेरा वजूद उस स्कूल टीचर जैसा हैं, जो पहले समझने के लिए पड़ता है और फिर ताउम्र समझाने के लिए पड़ता है, और ऐसे शकसियतें बहुत ही कम होती है जो समझ और समझा दोनों सकें…
अक्सर पाला ऐसे समझदारों से ही पड़ता है जिन्होंने “समझने के वक़्त” को एक ऐसी दौड़ समझा की जिसमें अव्वल आना ही इकलौता मक़सद रहा, और हक़ीक़त का इस दौड़ से दूर दूर तक कोई तरजुमा नहीं है – जनाब आप मुझे ही ले लें…
हर वो ऐब जो मौजूद है या सोचा भी जा सकता है, उन सभी ऐबों की वजह से मैं हूँ, मेरा वजूद बरक़रार है और मेरे ऐब भी…ऐब भी ऐसे जो मेरे अकेले के वफ़ादार नहीं, हर शक्स कोई ना कोई ऐब ले के घूमता है लेकिन मेरा वजूद ख़तरे में तब होता जब हर शक्स ऐब के साथ कोई हुनर भी पाल लेता, हुनर झूठे नहीं होते…लोग मुझे पड़ते हैं, कोई मेरे अफ़सानों से इखलाक रखता है तो कोई ख़िलाफ़त, मगर पड़ते हैं…
और मेरा मक़सद?
मेरा तो शायद कोई मक़सद था ही नहीं, मैं पड़ता रहा, लेकिन मैंने कभी पड़ाया नहीं, हाँ मैंने लिखा ज़रूर है, और मेरा लिखा वो आयिना है जिसे लोग देखते हैं, मुझे पड़ कर पढ़ाते हैं…
मैंने अपना लिखा अफ़साना या कहानी आप उसे जो भी समझें या ना भी समझें, काग़ज़ पर उतार देने के बाद उसे फिर नहीं पड़ा…शायद पसन्द नहीं…
मैं…
“ना मैं तरक़्क़ी पसन्द हूँ, ना जिद्दत पसन्द, ना रजत पसन्द और ना ही तज़रीबियत पसन्द…मैं तो बस मंटो पसन्द हूँ”…
सोच बंद, शब्द फरार, कलम सुखी, पन्ने खाली फड़फड़ा रहें हैं,
तुम ज़रा दर्द दो ना…
जिस्म ढीला, आँखें नम, ज़बान पे ताला, हर काम मैंने टाला,
तुम ज़रा दर्द दो ना…
होश हो के भी नहीं, ढूँढने लगता हूँ जो गुमा ही नहीं,
तुम ज़रा दर्द दो ना…
बत्तियाँ सारी गुल, उजाले से कोफ़्त अँधेरे से प्यार,
तुम ज़रा दर्द दो ना…
शोर चुभता, ख़ामोशी खलती, वो आज बात नहीं जो कल थी,
तुम ज़रा दर्द दो ना…
भूख नदारद, प्यास भी रूठी, झूठ लगे सच्चा, सच्ची बातें झूठी,
तुम ज़रा दर्द दो ना…
इतना सा अफसाना है,
सच कहता हूँ सच के सिवा कुछ नहीं,
दर्द जब तक निगाह में नहीं होता,
लिखना चाहूँ लिखा नहीं जाता,
अब और गिड़गिड़ा भी नहीं पा रहा हूँ,
बिन रेत घंस रहा बिन पानी डूब रहाँ हूँ,
बचा लो, निकालो भँवर से,
तुम ज़रा दर्द दो ना…
रख के काग़ज़ पे क़लम, इस उम्मीद से हूँ,
अभी उठेगा एक दर्द और सब मीठा हो जाएगा,
सोच, शब्द, क़लम, पन्ने, खिल उठेंगें,
और एक क़िस्सा नज़र होगा,
आज़मा के देख लो,
कितना हंसी वो मंज़र होगा…
जैसे…कुछ ऐसा सा…
ये सर्दियों की सुनहरी धुप और तुम्हारी गर्मियाँ,
ख़ूबियाँ तेरी हज़ार, अनगिनत मेरी कमियाँ…
एक बार फिर नए साल की भविष्यवाणी ले कर हाज़िर, गाय का रखवाला, आपका अपना जानदार दारूवाला…
पिछले साल की तरह ही 2 जीरो (नहीं ज़ीरो की रेटिंग नहीं) एक आठ, मेरा मतलब दो-हज़ार अठारह का उन्नीस होगा, सिर्फ़ एक अंक ही बदलेगा बाक़ी के हालात रहेंगे ज्यों-के-त्यों, खुलेंगे शायद कुछ और #metoo मोमेंट्स, उनके जो नहीं समझे थे NO मतलब NO, ज्यादा कुछ नहीं सिर्फ न्यूज़ चैनल की #TRP बड़ेगी, क्वालिटी गिरेगी…
विराट, रनवीर, सोनम और तो और सुहेल सेठ हिच हो गए, सलमान उर्फ़ भाई उर्फ़ बिग बॉस अभी भी ख़ुशहाल हैं, गंगा का फ़ण्ड क्लीन, स्टैचू मेड विद सपोर्ट ओफ़ चीन, तेल-सिलेंडर का भाव जाते जाते गिर गया, कुछ राज्यों में कमल मुरझाया और हाथ खिल गया…
…कमर्शल ब्रेक… (तेल बचाये इलेक्ट्रिक कार चलायें, बदबू आये तो एलोन मस्क लगाये)…(Netflix एंड Chill, नहीं समझे तो वॉच प्राइम इट्स नो क्राइम)…
याद रखें इस साल चुनाव हैं, अपना वोट प्रतयाक्षी को ही दें, पार्टी से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, कोई तोप तो कोई जहाज़ खाती है, हाथी, साइकिल, हल, सब आइटम हैं, सिर्फ आम आदमी की जेब पर झाड़ू चलाती हैं…
इस साल भी दिवाली के पटाखे बचाए जाएँगे और शादियों में जलायें जायेंगे, साल के अन्त में कुछ और नोट बन्द हो सकते हैं (हो सकता है ना भी हों) जिन्हें कहते थे पप्पू वो अक़्लमंद हो भी सकते हैं (हो सकता है ना भी हों), प्रदूषण, माल्या, मोदी किसी का कुछ भी नहीं बिगड़ेगा, शायद आदमी धर्म से ऊपर उठेगा और गाय नहीं तो देश हित में peacock के नाम पर लड़ेगा…
ये नारा अमर होगा “मंदिर वहीं बनाऊँगा मैं”…या सरकार बदली तो देश में ही घूमूँगा “विदेश नहीं जाऊँगा मैं”…
संभावना है शहरों, गाँव, क़स्बों के नाम बदले जाएँगे और जनता पर लगेंगी नयी पाबंदियाँ, हालात में नहीं होगा रत्ती भर भी बदलाव, लगाते हो तो लगी शर्त, सलाह मानो तो मत लगाओ, धंदा अगर मंदा हैं तो कोई नया व्यापर जैसे आलू की फ़ैक्ट्री या पकौड़ों की दुकान लगाओं…
वेल इन टाइम वैलेंटायन की तैयारी कर लें, बजट का भी सेम टाइम है, गर्ल्फ़्रेंड से उम्मीद रखें, सरकार आपकी उम्मीदों पर फिर शू-शू करेगी, और एक महीने बाद जिनका इंकरेमेंट है उनकी मेहनत उन पर थू-थू करेगी, करेंगें देश के चोर फिर से चोरी और सीनाज़ोरी, आप सामान्य नागरिक है तो पुलिस देखते ही बिन ग़लती आप करंगे सौरी…
क्रिकेट होगा नया सेक्रड गेम, क्यूँ ना हो, चाय वाला पुराना हो गया, क्रिकेट कप्तान एक पाकसाफ़ प्रधानमंत्री या बंगला चुनाव जीत सकता है, अर्रे मुझसे पूछो तो मैं तो धोनी के हाथ पूरा मिर्ज़ापुर कर दूँ, या कोहली की सी अकड़ से हालात सुधार का आग़ाज़ करूँ, और नोटा से ना हारूँ, इस साल फिर जीते जी ख़ुद का ना मारूँ…
नए साल का पहला जाम, दिल्ली में राजीव चौक और हरियाणा में गुड़गाँव (गुरुग्राम को मेरा प्रणाम) के नाम…
जय हो !! ग से गाय, ग से गंगा गए साल का आख़िरी और नए साल का पहले पंगा…
…ये सत्य को एक व्यंग्य के रूप में पेश करने की कोशिश है, ये काल्पनिक सीमाओं से बाध्य भी नहीं, अगर आप नाम, जगह, इत्यादि किसी से भी ये अंदाज़ा लगा सकते हैं की वो किस व्यक्ति विशेष को लेकर कही गयीं है तो अपने लिए एक ज़ोरदार ताली बजाएं और अपनी अगली पार्टी में मुझे भी बुलायें…
तुम ईद का चाँद होती – तो क्या बात थी,
जो ना कह पाया तुम वो बात होती – तो क्या बात थी,
तुम आते जाते नज़र आती फिर ठहर जाती – तो क्या बात थी,
तुम मेरी पहचान मेरी जात होती – तो क्या बात थी,
तुम यहीं कहीं होती – तो क्या बात थी,
तुम आसमान तुम ज़मीन होती – तो क्या बात थी,
जो हम पहले मिले होते – तो क्या बात थी,
जो हम सिलसिले होते – तो क्या बात थी,
जो तुम होती कोई क़िस्सा – तो क्या बात थी,
जो तुम होती मेरा हिस्सा – तो क्या बात थी,
तुम कहानी मैं किरदार – तो क्या बात थी,
मैं कबीला तुम सरदार – तो क्या बात थी,
मैं तारा तुम चाँदनी होती – तो क्या बात थी,
जिसे देखूँ तुम होती हर वो नज़ारा – तो क्या बात थी,
तुम होती समन्दर और किनारा भी – तो क्या बात थी,
तुम होती जो हवा और मुझको उड़ाती – तो क्या बात थी,
तुम अमावस भी चाँदनी रात भी होती – तो क्या बात थी,
और तुम, तुम क्या निकली मेरी पहली मुहब्बत निकली,
मुहब्बत जो मुझे इस जहाँ से रूखसत होते-होते मिली…
तुम मुझे पहले क्यूँ नहीं मिली?
जो तुम मुझे पहले मिल जाती,
कोई तो होता जो कहता, काश…
ये जो जल रही है, ये लवारिश नहीं है लाश…
अभी–अभी गयी दिवाली है…
दिए जलें और लोग गले मिलें,
घरो में खुशियों की मन्नते मांगी गयी,
तर्रक्की और धन की वर्षा हो,
ये सोच हुआ घमासान पूजा पाठ,
उनके यहाँ जिनके है मस्त ठाठ…
देख ये सब माता–लक्ष्मी हुई कुछ हैरान,
और निकाला बही–खाता, हिसाब किताब देख गयी चौंक,
जो दिए बेच रहा था, वो जलाता नहीं,
जो मिठाई बना रहा था, वो खाता नहीं,
जो बेच रहा था पटाखे लड़िया, अँधेरी थी उसकी गलियाँ,
मोमबत्ती सा दिल, गया पिघल और सोच को उनकी लगा धक्का…
कौन खरीद रहा था दिये, मिठाई और पटाखे ?
कौन बुला रहा था मुझे पूजा पाठ करवाके ?
सब कुछ तो है इनके पास “और” का क्या करेंगें ?
घोर अन्याय, सोचने लगी इसका क्या उपाय है,
…लगाया ध्यान तो जली बत्ती…
ये तो निचे बैठे बस लकीरें खींचते ही रहेंगे,
और मांगते रहेंगे – “और” “थोड़ा और” “थोड़ा बहुत और“,
सोच समझ कर विचार, किया तय,
इस दिवाली जिसे असल में है मेरी ज़रूरत, वहीँ जाउंगी,
ये ऊंच–नीच का फ़ासला मेरी ही वजह से है,
इसे मैं ही मिटाऊँगी…
Disclaimer >>
ये पुलाव सिर्फ ख़याली हैं, अगले साल फिर दिवाली है, होना फिर यही सब हर साल है, सोचने को अच्छा मगर ख्याल है…
साये ये रात के साये,
कहाँ ले आए हमें ये रात के साये,
घनेरे कलेरे डरे डरे से ये घबराये,
ओड़ चादर फटी ये ठुकराये,
ये साये रात के…
बिना बात कभी पीछे पड़े,
धुआँ उड़ाते, चेहरा छुपाते, लड़खड़ाते,
गिरते गिरते से, सम्भलते से, डगमगाते,
दूर से झाँकते, क़रीब आ सो जाते,
हाय ये राते के साये…
एक सच को छिपाए हुए,
बिन बुलाये ये आये हुए,
एक मरियल लकीर से, फ़क़ीर से,
भूख से लिपटे, कालिख से चिपटे,
ये काले काले साये…
आमने, सामने, घूमते गोल गोल,
कभी बैठे, कभी खड़े, मुँह खोल,
जैसे अभी ये जाएँगें निगल,
वो पहली किरण, इनका आख़िरी शंड़,
और रह जाती ना जाने वाली, काली रात…
हाय, ये काली के रात के साये…