
ना मालूम वो मंदिर था या मस्जिद जो गिरायी गयी थी,
शर्त लगाता हूँ एक दीवार थी जो हमारे बीच उठायी गयी थी…
सोची समझी साज़िश थी जम्मू से कश्मीर की दूरी बड़ाने की,
शर्त लगाता हूँ असल बात थी भाई को भाई से लड़वाने की…
उस हादसे ने हलवे–सेंवई की अदला बदली पर पाबंदी लगा दी,
शर्त लगाता हूँ बिना पड़े उन्होंने रामायण से क़ुरान भिड़वा दी…
सब हट्टे–कट्टे है और एक ही थाली के चट्टे–बट्टे हैं,
शर्त लगाता हूँ ये वो अंगूर हैं जो एकदम खट्टे हैं…
“ग़रीबी हटाएँगे”, “लोकपाल लाएँगें”, “मंदिर वहीँ बनायेंगे”,
शर्त लगाता ये सालों तक ऐसे ही हमें चूना लगायेंगें…
राजनीती के चक्कर में ये आज भी नफरत का सीड बो रहें हैं,
शर्त लगाता हूँ राम और अल्लाह अपना सर पकड़ के रो रहें हैं….
बहुत ही सुंदर कविता 👌👌👌❤
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