सोच बंद, शब्द फरार, कलम सुखी, पन्ने खाली फड़फड़ा रहें हैं,
तुम ज़रा दर्द दो ना…
जिस्म ढीला, आँखें नम, ज़बान पे ताला, हर काम मैंने टाला,
तुम ज़रा दर्द दो ना…
होश हो के भी नहीं, ढूँढने लगता हूँ जो गुमा ही नहीं,
तुम ज़रा दर्द दो ना…
बत्तियाँ सारी गुल, उजाले से कोफ़्त अँधेरे से प्यार,
तुम ज़रा दर्द दो ना…
शोर चुभता, ख़ामोशी खलती, वो आज बात नहीं जो कल थी,
तुम ज़रा दर्द दो ना…
भूख नदारद, प्यास भी रूठी, झूठ लगे सच्चा, सच्ची बातें झूठी,
तुम ज़रा दर्द दो ना…
इतना सा अफसाना है,
सच कहता हूँ सच के सिवा कुछ नहीं,
दर्द जब तक निगाह में नहीं होता,
लिखना चाहूँ लिखा नहीं जाता,
अब और गिड़गिड़ा भी नहीं पा रहा हूँ,
बिन रेत घंस रहा बिन पानी डूब रहाँ हूँ,
बचा लो, निकालो भँवर से,
तुम ज़रा दर्द दो ना…
रख के काग़ज़ पे क़लम, इस उम्मीद से हूँ,
अभी उठेगा एक दर्द और सब मीठा हो जाएगा,
सोच, शब्द, क़लम, पन्ने, खिल उठेंगें,
और एक क़िस्सा नज़र होगा,
आज़मा के देख लो,
कितना हंसी वो मंज़र होगा…
जैसे…कुछ ऐसा सा…
ये सर्दियों की सुनहरी धुप और तुम्हारी गर्मियाँ,
ख़ूबियाँ तेरी हज़ार, अनगिनत मेरी कमियाँ…