इक शोख़ हसीना थी, बड़ी पूर-ज़ौक़ हसीना थी,
आँखे मुंदू तो नज़र आती, खोलूँ तो कहीं ना थी…
इक हादसा हो जैसे कहीं भी दिख जाती थी,
जो ज़हमत उठा धूँडू तो वो गुज़रा महीना थी…
काग़ज़ पे कलम सी बिखरती थी वो बड़ी ही खूब,
वो थी स्याही की बोतल जिसमें जाता था मैं डूब…
वो नीचे से ऊपर ज़मीन को आसमान से मिलाती थी,
मैं बैठा पेड़ की छाओ में, वो परछाई मेरी बन जाती थी…
वो ज़ेहरा थी, वो ज़ोहरा थी, वो चाँद थी हीरा पन्ना थी,
मुझे मिलती थी मेरे ख़्वाबों में, वो मेरी तमन्ना थी…
वो मिली नहीं मुझको वो गुम है, वो गुमशुदा है,
ढूँढो उसे मिलवाओ मुझसे, वो मुझसे जुदा है…
मैं हूँ मंतो सा बावरा वो मेरी अल्हड़ इसमत है,
मैं हूँ इक फूटे घड़ा सा वो मेरी मुकम्मल क़िस्मत है…