जो हमसे मिलना है तो कभी तहखाने में आओ, आओ कभी मेरे मयखाने में आओ,
वहाँ सूरज की रोशनी नहीं हैं, तीन चराग हैं, आओ एक और चराग जलाओ,
शब्–ए–रात में चार चाँद लगाओ, तुम आओ तो सही, चले आओ…
और हाँ…शर्म, हया का कुर्ता बाहर ही टाँग आना, हम ख़ुशी से ढक देंगे,
ना झिकको आजाओ, तहखाने की हालत यूँ तो ख़राब रहती है,
और न बिगड़े इसिलए वहाँ शराब रहती है, लड़खड़ाते चले आओ…
घना, घुप्प अँधेरा रौशनी खा जाता है, बस भूख वहाँ बेहिसाब रहती है…
इधर उधर बिखरे है कईं किस्से, लिपटे हुए कागज़ के टुकड़ो में,
एक संदूक, एक रजाई, एक कम्बल, दो सिरहाने हैं, चारपाई वहाँ अकेली सोती है…
न ज्यादा सर्दी होती है, न गर्मी वहाँ और ना ही बाहर की हवा आती–जाती है,
ना शोर है ना ख़ामोशी, एक अनोखी सी जगह है वो दो गज़ ज़मीन तले,
गिरते पड़ते, चार कंधो पे हो के सवार, कब्र में मेरी लुढ़क जाओ, चले आओ…
जो हमसे मिलना है तो कभी तहखाने में आओ, आओ कभी मेरे मयखाने में आओ…
वाह।बेहतरीन ढंग से लिखा है।👌👌
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