सोचो जो कोई नाम ना होता,
कोई बद कोई बदनाम ना होता…
यहाँ सारे गुनाह और क़त्ल खुलेआम ही होते,
पकड़ता कौन और किसको, की किसने कर दिया गुनाह,
लेके शक्ल नुमा तस्वीर, ढूँढता किसको कौन यहाँ…
बेजान सी होती यहाँ वो बेनाम सी होती,
हर क़िस्सा कहानी भी बिना नाम की होती…
नो होते शक्ल के ना बड़ी अक़्ल के कोई माने,
कोई जाता कहाँ किसी को यहाँ कैसे बुलाने…
शायद ऐसे से होते शहरो के नाम भी,
वो गली शराफ़त, ये नेक मोहल्ला,
और घरों में लगती यूँ आवाज़, बड़ी, छोटी, ये निक्का वो झल्ला…
किसी के आने और चले जाने का कोई हिसाब ना होता,
बस करते, कराते, कुछ लिखते लिखाते, और बनते, बनाते,
सभी आते सभी जाते…
ये किया किसने लिखा और है ये किसने बनाया,
करने को यहाँ कोई ख़ुद पे कोई गुमान ना होता,
कोई हस्ती नहीं बड़ा किसी नाम ना होता…
बस होती जहाँ में बात अच्छी बड़ी ही एक,
होता खुदा भी एक, बंदे भी उसके एक,
होता यहाँ इस दुनियाँ में सब कुछ बड़ा ही नेक,
ना होता खुदा, भगवान ना नानक ना ही कोई ईसा,
ना जाता मंदिर, मदिनों, मैं यहाँ इंसान को पीसा…
एक ही होते भले एक जैसे ना होते,
हँसते सभी सब संग, साथ में सभी रोते..
ना होते ज़मीनो के भी कोई नाम, कोई लकीर ना होती,
आज़ादी के बाद की वो तस्वीर ना होती,
ना मरता कभी कोई हिंदू या मुस्सलमान,
होता असल में अमनो-चैन इस जहॉन…
करने को कर लेता हूँ एक शुरुआत यहाँ से,
मेरे रहते ही मिटा दो मेरा नाम इस जहॉन से…