किताबें चारों ओर और बीच में हूँ मैं,
जैसे लहलहाते खेतों में इकलौता पेड़,
जैसे तैरती पतंग तारों के बीचों बीच,
गोल सब, किस तारें से हूँ दूर किसके करीब,
दुनियाँ अजीबो-गरीब और बीच में हूँ मैं…
हर पन्ना फड़फड़ा रहा बहती हवा के साथ
मैं किताबों से और किताबें मुझसे करती बात,
हर हर्फ़ उछल उछल बना रहा अपनी ही तान,
कभी किस्सा कभी कहानी सुनते मेरे कान,
कितने सारे हिस्से मेरे और बीच में हूँ मैं…
इधर उधर सीधे खड़े कुछ लेटे, भरे हुए पेन,
कुछ सच्ची कहानियाँ, बाकी कुछ तो हैं वहम,
कुछ आप बीती हैं कुछ जैसे सुनी सुनायीं हैं,
कुछ किताबें पड़ ली हैं कुछ यूँ ही सजायी हैं,
बनावट की सजावट और बीच में हूँ मैं…
कुछ किस्से कहानियाँ लिखनी बाक़ी हैं अभी,
दर्द और अभी झेलने होंगे कह पाएंगे तभी,
कुछ टूटे कुछ बिखरे अल्फ़ाज़ समेटने भी हैं,
कुछ बातें किस्से-कहानी की माला में पिरोनी हैं,
वो एक आखिरी क़िस्सा जिसके बीच में हूँ मैं…