एक ज़मीन का टुकड़ा कुछ उखड़ा, था, शायद…
दो गज़ लम्बाई, दो हाथ भर चौड़ाई, यक़ीनन…
बदमस्त हो वहां ज़िन्दगी सो रही थी, शायद…
मौत चेहरों पे सिरहाने उसके रो रही थी, यक़ीनन…
दूर से लगा, कुछ ऐसा वो मंज़र था, शायद…
मिटटी में जा मिला मिटटी से वो बना था, यक़ीनन…
भीड़ थी और कुछ चेहरों पे गीली लकीर थी, शायद,
बाकी रौनक आ–जा रही, रस्म निभा रही थी, यक़ीनन…
ताबूत में अब बस होने को वो बंद था, शायद…
आज़ाद छंद था अब वो आज़ाद छंद था, यक़ीनन…