एक हुजूम का हिस्सा है; आदमी नहीं जैसे कोई किस्सा हैं…
टेबल का टुटा पैर या कुर्सी की टूटी हुई बाँह,
अखबार का अनपड़ा इश्तहार या जगह भरती खबर बेकार,
घड़ी की सबसे लम्बी सुई या पुरानी रजाई की रुई जैसे,
टूटे मुँह वाले चाय का गिलास या बीते फैशन का लिबास,
खुद से भी कितना दूर है, ना जाने किसके पास हैं…
भरी कॉपी है कोई या किताब के आखिरी पन्ने में रखा बुकमार्क,
सर्दियों में फ्रिज में बेकार जमी बर्फ या बड़े चेक वाला स्कार्फ़,
पुराने पर्स में रखा फटा हुआ नोट या पुरानी चोट का निशान,
ज़मीन जिसकी सारी बिक गयी खोखली ज़मींदारी की शान,
सोलह अगस्त की जैसे पतंग, सोच सोच कर हूँ मैं दंग…
मोटी निब का पेन जैसा कोई या खाली लाल रिफिल सा है,
वो चश्मा है गोल सा जिसकी उम्र आँखों से भी हो बड़ी,
तीन पहिये वाली साईकिल जैसे बच्चे से छोटी हो, कोने में पड़ी,
बची हुई उन का ज़रा सा गोला कोई और कोई बड़ा ही भोला यहाँ,
बेज़ार कहो, बेकार कहो, उसे अपनी ही हालत का शिकार कहो…
दादी की सफ़ेद चीनी वाली कटोरी कोई, कोई बिना धार की छुरी,
साठ मिनट की ऑडियो कैसेट कोई और कोई टेप रिकॉर्डर सा है,
बिन पानी के सूखा नल सा तो कोई भुला–बिसरा कल सा है,
ब्लैक एंड वाइट कैमरा कोई और कोई धूल चढ़ी तस्वीर,
वक़्त का चक्र पीस देता हर सब्र…